भाईगुरु का जन्म 13 दिसंबर 1964 को, भारत के पंजाब राज्य में स्थित लुधियाना शहर में, एक ईश्वर-प्रेमी परिवार में हुआ। उनके माता-पिता ने उनका नाम रमनीश रखा, जिसका संस्कृत भाषा में अर्थ है 'जो सर्वोच्च ईश्वर से प्रेम करता है'। यह नाम इनके संग 40 वर्षों तक रहा। सन 2004 में, महादेव शिव और आदिशक्ति माँ काली के प्रति इनका प्रेम और समर्पण देखते हुए, श्री बाबाजी ने इनका नाम महेश रख दिया और भाईगुरु की उपाधि प्रदान की। स्नेह से लोग इन्हें 'भाईगुरु' कहकर संबोधित करते हैं क्योंकि वे सभी के परिवार का हिस्सा बन जाते हैं और आध्यात्मिक विकास में सबका स्नेहपूर्वक मार्गदर्शन करते हैं।
प्रारंभिक समय
इनके दादाजी, दुर्गा दास टांगरी, अत्यन्त धार्मिक और परोपकारी व्यक्ति थे। लंदन से अपनी इंजीनियरिंग करने के बाद, वे लुधियाना शहर में बस गए और वहाँ उन्होंने समाज कल्याण के लिए बहुत कार्य करें। उनकी हवेली में एक बड़ा भवन था, जहाँ विधिपूर्वक गुरु ग्रन्थ साहिब स्थापित किये गए थे, और रोजाना धार्मिक पाठ होते थे। उनके जीवन काल में भण्डारों का नित्य आयोजन होता था।
इनके पिताजी, राज ऋषि टांगरी, कई साल पहले भारतीय वायु सेना से सेवानिवृत्त हुए थे। उन्होंने तीन प्रमुख युद्धों में भाग लिया - 1962 में चीन के साथ और 1965 और 1971 में पाकिस्तान के साथ। वे भी आध्यात्मिक और सामाजिक रूप से जागरूक व्यक्ति हैं। भारतीय वायु सेना के कार्यकाल में उन्होंने कई शहरों का भ्रमण किया, जिससे इनके बच्चों को विभिन्न संस्कृतियाँ और नीतियाँ जानने का अवसर मिला। राज ऋषि ने अपने दोनों बच्चों की परवरिश बहुत ही उदारचरित माहौल में की, जहाँ सभी धर्मों को स्वीकार व उनका सम्मान किया गया, और कट्टर धार्मिक प्रथाओं का न तो पालन, और न ही उन्हें प्रोत्साहित किया गया।
पहला आध्यात्मिक प्रभाव
सन 1970 के अंत में, जम्मू और कश्मीर राज्य के उधमपुर के पहाड़ी शहर में, अपने परिवार के साथ रहने के दौरान, युवा रमनीश माँ वैष्णो देवी के भक्त बने। इनके परिवार के सदस्य नियमित रूप से दिव्य माँ के मंदिर में दर्शन के लिए जाते थे क्योंकि वह उधमपुर के समीप था। दिव्या माँ के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने की इच्छा से, रमनीश हमेशा नंगे पैर ही मंदिर की दूरी तय करते थे। मंदिर में अपनी अनेक यात्राओं का अनुभव, भाईगुरु निम्नलिखित शब्दों में साँझा करते हैं:
जब भी मुझे पता चलता है कि हम माँ वैष्णो देवी जा रहे हैं, तो मैं उन चीजों की एक सूची तैयार करता था जो मुझे दिव्य माँ से मांगने होते थे। माँ के मंदिर की यात्रा हमेशा विशेष होती थी लेकिन दिलचस्प बात यह थी कि जिस क्षण मैं उस गुफा के भीतर पहुंच जाता जहाँ माँ का स्वरुप स्थापित था, और उनके सामने साष्टांग प्रणाम करता, तो मुझे उस सूचि में लिखी चीजों को मांगने की इच्छा ही नहीं होती थी। मैं केवल इतना कहता था, “माँ! आप सब कुछ जानती हैं। कृपया मुझे वह दें जो मेरे लिए सबसे अच्छा है।”आखिरकार, मैंने सूची बनाना बंद ही कर दिया। कभी-कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि क्या शिवकलीबोध वास्तव में दिव्य माँ का आशीर्वाद है जो मुझे उन दिनों प्राप्त हुआ था। मुझे दिव्या माँ से सबसे श्रेष्ट उपहार मिल गया।
शिरडी साई बाबा
विभिन्न कान्वेंट व सेना के स्कूलों से शिक्षा प्राप्त करने के बाद, इन्होंने सन 1983 में IIT (रुड़की) में दाखिला लिया एवं सन 1987 में इनकी इंजीनियरिंग की शिक्षा पूर्ण हुई। जयपुर में स्थित एक कंपनी में पहली नौकरी करते हुए, इन्हें बहुत यात्राएँ करनी होती थी। अनगिनत रेल यात्राओं के समय, और खाली समय में, वे धर्म और आध्यात्मिकता पर किताबें पढ़ते थे क्योंकि इन विषयों में इनकी रूचि हमेशा से थी। एक पुस्तक जिसने इन पर अमिट प्रभाव छोड़ा छाप छोड़ी, वह थी एम.वी.कामंत द्वारा लिखित, `शिरडी के साईं बाबा -एक अद्वितीय संत। भाईगुरु ने इस पुस्तक को पढ़ने का अपना अनुभव इस प्रकार साझा किया है:
जैसा-जैसे मैं किताब पढ़ता गया, और शिरडी साईं बाबा के बारे में जानने लगा, तो मैं आश्चर्यचकित रह गया कि कुछ दशक पहले ही इतने तेजस्वी संत इस पृथ्वी पर रहते थे। उनके निस्वार्थ जीवन के दर्शन से मैं इतना प्रभावित हुआ कि किताब पढ़ने के समय मैं आत्मविभोर हो गया और मेरी आँखों में आँसू छलक आए। कभी भी किसी पुस्तक ने मुझे इतना भावुक नहीं किया, न ही आध्यात्मिक रूप से इतना आवेशित किया है, जितना इस पुस्तक ने किया। इसने मुझमे दिव्य आत्माओं, और सर्वशक्तिमान ईश्वर के बारे में अधिक से अधिक जानने की इच्छा भी जागृत की।
इनके आदर्श - गुरु नानक
शिरडी साईं बाबा पर कई पुस्तके पढ़ने के बाद, इन्होंने गुरु नानक के बारे में पढ़ना शुरू किया। गुरु नानकजी के फ़क़ीर और पारिवारिक व्यक्तित्व ने इन्हें बहुत प्रभावित किया। चूंकि गुरु नानक का जीवन और विभिन्न यात्राएँ अच्छी तरह से अभिलिखित हैं, इसलिए इन्होंने उनपर बहुत विस्तार से किताबे पढ़ी। अपने जीवन में गुरु नानक के प्रभाव के बारे में, भाईगुरु बताते हैं:
मैंने गुरु नानकजी को अपना आदर्श मानना, और जीवन को उनके समान जीने का सोच लिया - जगह- जगह यात्रा कर, आध्यात्मिक रूप से सभी को शिक्षित करना, निर्भयता से समाज के अंधविश्वासों और अयथार्थ कर्मकाण्डों पर प्रश्न करना, और हर समय परमात्मा को आत्मसमर्पणपीत रहना। आज तक गुरु नानक मेरे दिल में बेस हुए हैं, और मैं उनके जैसा फकीर ही हूँ। वे वास्तव में देवता थे, जो हमारे बीच साधारण मनुष्य कि भांति रहे।
संत और शास्त्र
पूजनीय व उत्कृष्ट विषयों को जानने की इच्छा, 23 साल की उम्र में, इनमें प्रबलता से जागृत हो गयी। आगामी वर्षों में, इन्होंने आदिशंकराचार्य, ज्ञानेश्वर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, कबीर, बुद्ध, खलील जिब्रान, महाभारत, रामायण, बाइबिल, गुरु ग्रंथ साहिब, भगवद गीता, श्री कृष्ण जीवनदर्शन, और संतो एवं दर्शनज्ञों पर कई किताबें पढ़ीं। परमात्मा को जानने की इनकी खोज प्रारम्भ हो गई थी।
प्रथम गुरु
सन 1988 में इन्होंने नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अपना व्यवसाय शुरू किया। यह वो समय था जब इन्होंने व्यवसाय में अपने को पूर्णता लीन कर दिया और एक युवा की सामान्य अपेक्षाओं और इच्छाओं के साथ जीवन व्यतीत किया। लेकिन परमात्मा की योजनाएँ कुछ अन्य थी, और यह योजनाएँ धीरे-धीरे सामने आ रही थी।
फरवरी 1993 में, इनके दोस्त, राजेश कालरा ने इन्हें माता निर्मला देवी द्वारा स्थापित आध्यात्मिक प्रणाली, सहज योग से परिचय करवाया। वे कई बार राजेश के साथ लंबी चर्चा में डूबे रहते थे, जिसमें जीवन के अर्थ व उद्देश्य और आध्यात्मिक अनुभवों को साझा करना शामिल था। राजेश ने इन्हें सहज योग में शामिल होने के लिए कहा। उन दिनों भाईगुरु अपने को एक गंभीर आध्यात्मिक व्यक्ति के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। इसीलिए वे किसी भी गुरु से दीक्षा लेने के लिए तैयार नहीं थे। तीन महीनो बाद, आख़िरकार मई 1993 में, वे नोएडा स्थित सहज योग केंद्र में गए और इन्होंने दीक्षा ली।
शिरडी साई, गुरु नानक और आदि शंकराचार्य द्वारा बोया गया बीज, माता निर्मला देवी के आशीर्वाद से अंकुरित हो गया। सहज योग में तीन सप्ताह साधना करने के पश्चात, इन्हें अपने हथेलियों और सहस्रार में दिव्य लेहरों का प्रवाह अनुभव होने लगा। तब इन्हें जीवन-परिवर्तित अनुभव हुआ जब इन्होंने गणपतिपुले में सहज योग के दस दिन के आध्यात्मिक शिविर में भाग लिया। इसके बाद, वे माता निर्मला देवी के निष्ठावान भक्त बन गए और उतरी भारत के दूरदराज पहाड़ी शहरों और गांवों में इन्होंने सहज योग का प्रचार किया।
उनके दूसरे गुरु
सहज योग में अपनी आध्यात्मिक यात्रा के नौ साल बाद, उन्होंने महसूस किया कि उनकी आध्यात्मिक वृद्धि रुक गई है। इसलिए उन्होंने सहज योग छोड़ दिया और जुलाई 2002 में उन्होंने श्री बाबाजी से दीक्षा ली। इस अवधि के दौरान, उन्होंने माँ काली की पूजा शुरू की और उनके कट्टर भक्त बन गए। हालांकि, सिस्टम में कुछ झूठों के गवाह होने पर वह गहराई से परेशान थे, और मार्च 2017 में श्री बाबाजी को बोली लगाई।
सर्वोच्च प्राप्ति - शिवकालीबोध
अपने दूसरे गुरु विदा लेने के बाद, भाईगुरु आग्रहपूर्वक दिव्य माँ से प्रार्थना करने लगे कि ईश्वर संग एकीकरण की सही विधि इन्हें प्राप्त हो जाए। वे लंबे समय तक ध्यान में रहते और मार्गदर्शन के लिए आदिशक्ति माँ काली से प्रार्थना करते रहते। आदिशक्ति माँ काली और महादेव शिव के प्रति गहन भक्ति और पूर्ण समर्पण के फलस्वरूप, 10 अप्रैल 2017 को इन्हें शिवकालीबोध की प्राप्ति हुई।